लिप्यंतरण:( Wa minhum mai yastami'u ilaika wa ja'alnaa 'alaa quloobihim akinnatan ai yafqahoohu wa feee aazaanihim waqraa; wa ai yaraw kulla Aayatil laa yu'minoo bihaa; hattaaa izaa jaaa'ooka yujaadiloonaka yaqoolul lazeena kafaroo in haazaa illaaa asaateerul awwaleen )
और उनमें कुछ ऐसे हैं जो आपको सुनते हैं [48], और हमने उनके दिलों पर पर्दे डाल दिए हैं ताकि वे उसे समझ न सकें [49], और उनके कानों में बोझ है। और यदि वे सारी निशानियाँ भी देख लें, तब भी वे उन पर ईमान नहीं लाएंगे [50]। यहाँ तक कि जब वे आपके पास आकर झगड़ते हैं, तो ये काफ़िर कहते हैं: "ये (आयतें) तो बस पिछले लोगों की कहानियाँ हैं।"
जब रसूलुल्लाह ﷺ क़ुरआन की तिलावत फ़रमाते थे, तो अबू सुफ़यान, अबू जहल, वलीद और नजर जैसे काफ़िर सुनते थे,
मगर उनका मक़सद समझना या मानना नहीं था।
नज़र ने हँसते हुए कहा: “ये तो वही कहानियाँ हैं जो मैं भी सुनाता हूँ।”
अबू जहल ने घमंड में कहा: “मर जाना बेहतर है, लेकिन मानेंगे नहीं।”
ये आयत ऐसे लोगों की हक़ीक़त उजागर करती है जो सुनते तो हैं, मगर दिल में घमंड और मज़ाक लिए हुए।
ये हुक्म सिर्फ उन गिने-चुने लोगों के लिए नहीं,
बल्कि हर उस शख़्स के लिए है जो रसूलुल्लाह ﷺ से मुहब्बत नहीं रखता।
क़ुरआन को समझने के लिए सिर्फ दिमाग़ नहीं, दिल में मुहब्बत और तअज़ीम भी ज़रूरी है।
जिन्हें नबी ﷺ से सच्चा इश्क़ है, वही क़ुरआन के हक़ीकी मअनी पा सकते हैं।
ये काफ़िर सारी निशानियाँ भी देख लें, तब भी ईमान नहीं लाएंगे।
क्योंकि देखना और समझना दो अलग बातें हैं।
अल्लाह फ़रमाता है:
"और तुम उन्हें अपनी तरफ़ देखते हुए पाओगे, लेकिन वो कुछ नहीं देखते" (सूरा 7:198)
रसूलुल्लाह ﷺ को आँखों से देख लेना, सहाबी बनने के लिए काफ़ी नहीं,
बल्कि रूहानी पहचान और कबूल करना ज़रूरी है।
The tafsir of Surah Al-Anam verse 25 by Ibn Kathir is unavailable here.
Please refer to Surah Anam ayat 22 which provides the complete commentary from verse 22 through 26.

सूरा आयत 25 तफ़सीर (टिप्पणी)